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श्री गणेशाय नमः


Friday, November 14, 2008

बाल दिवस पर विशेष - कब तक शोषित रहेंगे बच्चे

Ashwini kesharwani (WinCE) एक दिन मैं नगर के सुप्रसिद्ध होटल में चाय पीने पहुंचा। वहां दो बच्‍चे अपने धुन में मस्त होकर काम कर रहे थे। इनमें से एक टेबिल से गिलास प्‍लेट वगैरह उठा रहा था और दूसरा, टेबिल साफ कर चाय पानी सप्‍लाई कर रहा था। इसी समय उसके हाथ से कांच का गिलास छूटकर नीचे गिर गया और टूट गया। कांच उठाते समय कांच का टुकड़ा हाथ में चुभ गया और खून बहने गला। लड़के को काटो तो खून नहीं। एक ओर मालिक द्वारा डांट खाने और नौकरी से निकाल दिये जाने का भय, तो दूसरी ओर हाथ की मरहम पट्‌टी की चिंता। मैं उस बच्‍चे के मनोभावों को पढ़ने का प्रयास कर ही रहा था, तभी मालिक का गुस्‍से भरा स्‍वर सुनाई दिया ''वहां क्‍या मुंह ताक रहा है.......गिलास उठाना और साफ करने की तमीज नहीं और चले आते हैं मुफ्‍त की रोटी तोड़ने। अरे! ओ रामू के बच्‍चे, साले ने कितने गिलास तोड़ा है, जरा गिनकर बताना तो.....?

होटल मालिक का क्रोध भरा स्‍वर सुनकर वह बालक थर-थर कांपने लगा। तभी मालिक का एक तमाचा उसके गाल पर पड़ा फिर तो शुरू हो गयी पिटाई, कभी बाल खिंचकर, तो कभी लात से। मुझसे यह दृश्‍य देखा न गया और मैं उठकर चला आया। दिन भर वह घटना परत-दर-परत घूमती रही और मैं सोचने के लिये मजबूर हो गया ''कब तक शोषित रहेंगे ये बच्‍चें........?''

उपर्युक्‍त घटना बाल मजदूरों के शोषण और दुख दर्द का एक उदाहरण मात्र है। इसी तरह के रिक्‍शे वाले, ठेले वाले, गैरेज वाले, बाल मजदूरों पर शोषण करते हैं, लेथ मशीन, मोटर गैरेज आदि जगहों में बच्‍चों को काम सिखाने के नाम पर मुफ्‍त के काम कराया जाता है। यह भी शोषण का एक तरीका है।
होटलों में जूठे बर्तन साफ करते बच्‍चे..गैरेज में काम के बहाने बच्‍चों की पेराई..गाड़ी साफ करना, खेतों और फैक्‍टरियों में बोझ ढोते ये सुमन..जूता पालिश करते ये बच्‍चे, आखिर ये कहां के बच्‍चे हैं ? इन्‍हें तो इस आयु में विद्यालय की कक्षाओं में होना चहिये था, क्‍या उत्तरदायित्‍व का बोझ इन्‍हें इन कार्यो के प्रति खींच लाया है ? क्‍या इनके माता-पिता इनकी परवाह नहीं करते अथवा हमारा राष्‍ट्र ही इनके प्रति इतना लापरवाह हो गया है ?
भारतीय बाल कल्‍याण परिषद्‌ द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि बाल मजदूरों से उनके मालिक 12 घंटो से भी अधिक समय तक काम लेते हैं। इस प्रकार बाल मजदूर शोषण के खूनी जबड़े में कैद हैं। ये मजदूर बड़ी संख्‍या में प्रत्‍येक शहर और गांव के छोटे बड़े उद्योगों में अपना खून-पसीना निरंतर बहाते आ रहे हैं। 1981 की जनगणना के अनुसार भारत में 30 करोड़ बच्‍चे थे, जो कुल जनसंख्‍या का 45 प्रतिशत है। इनमें बाल मजदूरों की संख्‍या 1 करोड़ 20 लाख 25 हजार थी, जो बच्‍चों की कुल जनसंख्‍या का 5 प्रतिशत और कुल और मजदूरों की संख्‍या का 7 प्रतिशत था। इनमें से सर्वाधिक 10 प्रतिशत आंध्रप्रदेश के बाल मजदूरों का था और अन्‍य राज्‍यों की कुल जनसंख्‍या का 4 प्रतिशत था। दूसरे स्‍थान पर मध्‍यप्रदेश है जहां बाल मजदूरों की संख्‍या का 3.5 प्रतिशत था। इसके अतिरिक्‍त उस समय संपूर्ण भारत में कृषि कार्य में संलग्‍न बाल मजदूर का 78.7 प्रतिशत भाग लगा हुआ था।
काम पर लगे बच्‍चों का आर्तनाद भारत में ही नहीं वरन्‌ दुनिया भर में सुना जा सकता है। अंतर्राष्‍ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) का अनुमान हैं कि विकासशील देशों में 8 से 15 वर्ष की उम्र के 5 करोड़ 50 लाख बच्‍चे मेहनत मजदूरी करते हैं। पूरी दुनियां में तो उनकी संख्‍या और भी अधिक है। ये बच्‍चे बहुत बड़े खतरों से जूझते हैं। इन्‍हें जहरीले रसायनों को छूना पड़ता है। विषाक्‍त धुंएं और गैसों के बीच संसा लेना पड़ता है, भारी बोझ ढोना पड़ता है। सामान्‍यता उनसे बहुत अधिक काम लिया जाता है। खाना तब भी भरपेट नहीं मिल पाता और वेतन तो कम मिलता ही है। इनमें से अधिकांश बच्‍चों को शारीरिक और मानसिक परेशानियों से जूझना पड़ता है।
हालांकि बहुत से देशों में बच्‍चों से मजदूरी कराने और दुर्व्‍यवहार करने के विरूद्ध कानून बने हुए हैं फिर भी आई.एल.ओ. का कहना है कि-''ऐसी कोई आशा नही है कि निकट भविष्‍य में इन मजदूर बच्‍चों की स्‍थिति में कोई सुधार आएगा.....? इस निष्‍कर्ष का आधार यही है कि अधिकांश मजदूर बच्‍चों का परिवार अपने अस्‍तित्‍व के लिये उनकी मजदूरी पर निर्भर रहते हैं। कृषक समाज में तो यह आशा की जाती है कि जैसे ही बच्‍चे चल फिर कर कुछ कर सकने योग्‍य हो तो खेतों में वह अपने माता-पिता के साथ हाथ बटाये। उद्योग प्रधान समाज में भी परिस्‍थितियां बड़ी भयानक है। ब्राजील के राष्‍ट्रीय बाल कल्‍याण परिषद्‌ के प्रमुख का कहना है कि ''जब से उद्योगीकरण शुरू हुआ है, हमने ग्रामीण क्षेत्रों से अनगिनत लोगों को शहर की ओर भागते देखा, भारत में इनके कारण गांव की जमीन बंजर होने लगी है।''

बाल मजदूर का मतलब होता है, सस्‍ता मजदूर-काम ज्‍यादा, मजदूरी कम। इसीलिए विकासशील देशों में किशोरों को ही अक्‍सर काम में रखा जाता है। तुर्की के कपड़ा उद्योग निगम के निर्देशक बेझिझक स्‍वीकार करते हैं। कि ''उनके मिल में 70 प्रतिशत कर्मचारी 15-17 वर्ष आयु के हैं। उनका कहना है कि वे (बाल मजदूर) थोड़ी बहुत सुविधा देने पर वयस्‍कों के बराबर उत्‍पादन देते हैं। मेक्‍सिको के बच्‍चों को एक दिन में 75 पैसों (लगभग पांच रूपये) मिलते हैं जबकि कानूनन उन्‍हें 455 पैसो (लगभग 33रूपये) मिलना चाहिये। भारत में चालीस हजार से भी अधिक बच्‍चे पटाखे और आतिशबाजी पैक करते हैं। उन्‍हें दिन भर काम करने पर अधिक से अधिक सात से दस रूपये मिलते हैं, जबकि उनक मालिक 32 करोड़ से 40 करोड़ रूपये रूपये सालाना कमाते हैं।
बच्‍चे तो कोई संगठन बनायेंगे नहीं, न ही वे ज्‍यादा काम अथवा कम वेतन के मामले में अधिकारियों से शिकायत करेंगे। कानूनी अधिकारों की जानकारी कितने बच्‍चों की होती है ? बहुत ही कम बच्‍चे अपनी इस कमाई और काम की इन स्‍थितियों पर असंतोष प्रकट करते हैं तो उन्‍हें प्रताड़ना, मार सहने पड़ते हैं। कभी-कभी उन्‍हें मार पीटकर काम से निकाल दिया जाता है। इसलिये उसे सहते हुए सोचते है कि ''चलो कुछ काम करके पेट तो भर जाता है, नही तो भूखे मारना पड़ता।''
मध्‍य अमरीका के बच्‍चे कीटनाशक जहरनीला दवाएं छिड़के खेतों में फसल काटते हैं और कोलंबिया के बच्‍चे कोयला खानों की घुटन भरी संकरी सुरंग में काम करते हैं। थाईलैण्‍ड में बच्‍चे हवा बंद कारखानों में 1500 डिग्री सेंटीग्रेड तक तपते कांच का काम करते हैं। दियासलाई तैयार करने वाले हजारों भारतीय बच्‍चें गंधक और पोटेशियम क्‍लोरेट जैसे अति ज्‍वलनशील पदार्थ की गंध में सांस लेते हैं। ब्राजील में कांच उद्योग में विषाक्‍त सिलिकान और आर्सेनिक की गैंसो में काम करते है। इन सभी का क्‍या परिणाम होता है ? इस छोटी उम्र में उसका शरीर बीमारियों का घर बन जाता है। ब्राजील, कोलंबिया, मिश्र एवं भारत में तो बच्‍चे ईंट उठाने का काम करते हैं। इससे उनकी रीढ़ की हड्‌डी को ऐसा नुकसान पहुंचाता है कि कभी ठीक नहीं हो पाता। जो बच्‍चे कारखानों में देर तक काम करते हैं ,किशोरावस्‍था में प्रवेश करने पर अक्‍सर उनके हाथ पैर स्‍थायी रूप से विकृत हो जाते हैं। कई बच्‍चे तो किशोरावस्‍था प्राप्‍त करने के पहले मर जाते हैं।
खतरनाक स्‍थितियों में बच्‍चों की सुरक्षा के लिये कानून तो है लेकिन वे शायद ही कभी लागू किये जाते हैं। कभी-कभी माता पिता बहुत कठोर हो जाते हैं। भारतीय किसान आज भी कई बार बच्‍चों को बंधुआ मजदूर बनाकर अपना कर्ज चुकाते हैं। इन सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि अपने बच्‍चों को शोषण से बचाने के लिये उनका परिवार कभी विरोध नहीं करता। आई. एल.ओ. ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि ''बच्‍चे को रचनात्‍मक और यथार्थ से ऊपर उठाने की योग्‍यता मारी जाती है और इसका मानसिक संसार निर्धन हो जाता है।''
दुर्भाग्‍य से ऐसे कार्यक्रम सीमित है और इस समय इने गिने बच्‍चे ही उसका लाभ उठा रहे हैं। दूसरे लाखों बच्‍चे तो रोज कुंआ खोदकर रोज पानी पीते हैं। उनके लिये कोई आशा या संभावना नहीं है, फिर भी कुछ ही बच्‍चे अपने काम से असंतोष प्रकट करते हैं। क्‍योंकि उन्‍हें पता नहीं है कि वे इससे अच्‍छा जीवन भी जी सकते हैं ?
यह एक रहस्‍यमय तथ्‍य है कि ये बाल मजदूर अपने शोषण की कहानी किसी से कहते नहीं। इसका कारण यह जान पडता है कि निर्धनता और मजबूरियों से ग्रस्‍त ये बच्‍चे दमन और शोषण के और अधिक होने की आशंका से ग्रस्‍त हो और उसी के फलस्‍वरूप वे काफी हद तक पंगु हो गये हों ?
आखिर ये खिलते सुमन मजदूरी क्‍यों करते हैं ? पास डगलस के शब्‍दों में-''समाज के द्वारा बच्‍चे को संरक्षण प्रदान करने का सबसे सार्थक उपाय उसके माता-पिता की आर्थिक स्‍थिति को सुधारना है जिससे वे बच्‍चों का उचित रूप से पालन-पोषण कर सकें। इसके अतिरिक्‍त एक गंभीर समस्‍या उद्यागों के लिये है जहां इनको पर्याप्‍त मजदूरी नहीं मिलती। अगर वहां पर्याप्‍त मजदूरी देने की प्रणाली अपनायें तब ही बाल मजदूरों की समस्‍या का निदान संभव है। अन्‍यथा सामाजिक सुधार की बात रेत में महल बनाने जैसा होगा।'' कुछ गरीब घरों के माता-पिता अपने पुत्र को जबरदस्‍ती काम पर भेज देने की घटनाओं से मैं परिचित हूँ। वे इसका कारण बताते हैं कि पढ़ा लिखाकर कौन सा हमें डांक्‍टर इंजीनियर बनाना है, अभी से काम वगैरह करेगा तो आगे चलकर मेहनती बनेगा और अपने व अपने परिवार का भरण पोषण कर सकेगा। उल्‍लेखनीय है कि गांवों मे कच्‍ची उमर में ही बच्‍चों की शादी कर दी जाती है। अब आप ही विचार करें कि कच्‍ची उम्र में मजदूरी करने वाला लड़का/लड़की क्‍या और कैसे सुखी रह सकता है ?
यघपि बाल मजदूरों की समस्‍या को ध्‍यान में रखकर सरकार द्वारा कई कानून बनाये गए हैं जो सिर्फ कागजों ओर पुस्‍तकों तक सीमित होकर रह गए हैं। अब भविष्‍य में बाल मजदूरों की संख्‍या पर अंकुश लगाये जाने की ओर ध्‍यान देना हमारे ही हित में होगा। यह सर्वमान्‍य तथ्‍य है कि राष्‍ट्र की उन्‍नति व अवनति उसकी भावी पीढ़ी पर निर्भर करती है। इस बात को ध्‍यान में रखकर बाल मजदूरों की दिशा में आमूल परिवर्तन लाना हमारा कर्तव्‍य है।
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रचना, लेंखन एवं प्रस्‍तुति
प्रो. अश्‍विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छ.ग.)

1 comment:

Anonymous said...

Dear Ashwanijee,
I have read your artical on child labour in kesarwani samaj on line
magazine.You deserve congratulation for your presentation on 14th
November the children's Day. You have given a very pathetic
description of life of poorman's children.They are really struggling
hard to survive
due to their ignorance.They are being exploited by so called wise and
educated people.
Who is responsible for this poor state of affair which compelled them
to lead such a rotten life.
Don't you think It is Government's responsibility to look after
them.Afterall the Government
has been elected by the votes of these poor people who is in majority. (dnbypk@gmail.com)

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