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श्री गणेशाय नमः


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Saturday, November 1, 2008

कविता: अब क्या लिखू

अब क्या लिखू
दरकती दीवारों से
झांकती बचपन की यादें
सूखे नीम के पेड़ पर
लटका झूला
जिस पर शायद ही
कोई झूले और
आसमान को छूले
नुक्कड़ पर खड़े पोस्ट
बाक्स पर लटका ताला
शायद उमीदों पर भी
अब ऐसे ही तालों में बंद है
चूल्हे से निकलता धुंआ
अब इशारा करता है
की पेट की आग पर
पानी पड़ चुका है
सपने में सूख चुका है
उमीदों का समुन्दर
खुशियाँ गली में फिरती
और गम दिलों के अन्दर
अब क्या लिखू
अब क्या लिखू

रवि प्रकाश केशरी
वाराणसी

Saturday, October 18, 2008

रवि प्रकाश केशरी की कविता: "दूरियां "

दूरिया छोटी
फासले बड़े हो गए
वास्तव में हम
बड़े हो गए,

घट गई देह से
देह की दूरी
दिलो के रिश्ते
दूर हो गए,

आसमान की
खवाहिश में हम
अरमानो के लाशो
पर खड़े हो गए,

जिंदगी की
चाहत में हम
मौत के करीब
होते हो गए,

आधुनिकता के दौर में
सभ्यता हार गई
और हम
फिर नग्न हो गए,

वास्तव में हम बड़े हो गये !


रवि प्रकाश केशरी
वाराणसी

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