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श्री गणेशाय नमः


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Wednesday, July 29, 2020

Hindi Kavita जीवन की बस आस तुम्ही हो

मन वीणा के तार बजा दो।
 जीवन के संगीत तुम्ही हो।
 तुम बिन कैसे जी पाऊंगा?
 मेरे तो मनमीत तुम्ही हो।

            जीवन मेरा सुखा मधुवन।
             जीवन का मधुमास तुम्ही हो।
             गंधहीन एक शुष्क पुष्प मैं।
              जीवन का सुन्दर बास तुम्ही हो।

 निराधार है जीवन मेरा।
 जीवन का आधार तुम्ही हो।
 इस पागल दीवाना के,
 जीवन का पहला प्यार तुम्ही हो।

                      डोल रही है जीवन नैया।
                       इसके तो पतवार तुम्ही हो।
                        जीवन मेरा सूखी नदिया,
                        मेरे पारावार तुम्ही हो।

 मिले बहुत पथ में लकिन,
 मेरी तो बस प्यास तुम्ही हो।
 अपना सब कुछ आज लुटा दूं।
 जीवन की बस आस तुम्ही हो ।


Sunday, October 30, 2011

Hindi Poem- Zindagi हिंदी कविता- ज़िन्दगी

बंद दरवाजे हों 
या खुली खिड़कियाँ 
हर समय बढती है 
ज़िन्दगी से नजदीकियां 

हो के बेवफा 
वफ़ा का दम भरती है 
गुमनाम गलियों में रहकर 
हमेशा मशहूर रहती है 

सब जानते हैं साथ
छोड़ देगी एक दिन 
फिर भी वादा करती है
हर पल हर दिन 

कभी आम है 
कभी ख़ास है ज़िन्दगी 
कडवे अनुभवों की 
मिठास है ज़िन्दगी 

आज है कल 
नहीं रहेगी ज़िन्दगी 
फिर भी बातों में 
जिंदा रहेगी ज़िन्दगी 

एक हमसफ़र है 
राहेगुजर है ज़िन्दगी 
खुदा से खूबसूरत 
एहसास है ज़िन्दगी 

लेखक: रवि प्रकाश केशरी, वाराणसी 

Monday, March 14, 2011

कविता: होली के रंग (Poem: holi ke rang)

होली के रंग 

मेरी ख्वाहिश है होली के कुछ रंग चुराने की 
होली के उन रंगों में से 
जो आसमान ही नहीं 
दिलों को भी रंग देतें है 
मगर कुछ पलों के लिए 
मैं उन रंगों से रंगूंगा 
उस सुहागिन की मांग को 
जो बंजर हो गए है 
सूखे की तरह 
मैं उन रंगों से रंगूंगा 
जीवन से निराश हुए 
लोगों के दिलों को 
जो केवल नाउम्मीदी को पाले बैठे है 
मैं उन रंगों से रंगूंगा 
उन युवाओं के सपनों को 
जो हताश भरी निगाहों से 
हर दफ्तर में दस्तक देते है 
और मैं उन रंगों से रंगूंगा 
उन बूढी आँखों को 
जो अपनों के ठुकराएँ है 
और मौत की राह जोहते है 
मेरी ख्वाहिश है होली के कुछ रंग चुराने की 

लेखक : रवि प्रकाश केशरी, वाराणसी होली

Thursday, May 13, 2010

हिंदी कविता: ग्रीष्म (Hindi Poem: Greeshm )

कविता: ग्रीष्म

आज गली से निकल रहा है 
सूरज अपने आप 
दहक रही है धरती सारी 
प्राणी करे संताप 

दावानल सी बहती ऊष्मा 
करे देह पर तीष्ण प्रहार 
पत्ते भी अब मुरझाये 
फूटे नभ से नित अंगार

आकुल व्याकुल सारे जंतु 
मानव मन मुरझाया है 
तपे रेत सी कोमल धरती  
हर्षित मन झुलसाया है  

शीतल जल और मलय पवन  
करती है जीवन संचार  
प्रखर रश्मियाँ मंद पड़े तो  
सहज बने जीवन व्यापार
 
लेखक: रवि प्रकाश केशरी: वाराणसी

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